हमारा नेता कैसा हो – नॉर्थईस्ट का जवाब, ‘टशनी’ हो...
यह भी कोई नेता है...? सरकारी बाबू की तरह लगता है...!"
"लेकिन काम तो किया है...!"
"हां, स्कूल में तो सुधार किया है... मोहल्ला क्लीनिक की तारीफ करनी पड़ेगी,
वहां सुविधाएं बहुत अच्छी हैं..."
"सुना है, RTP में भी घूसखोरी कम हुई है..."
"हां, दलाल कम हुए हैं..."
'मॉर्निंग वॉक' के समय 'वॉक' कम, 'टॉक' ज़्यादा होने लगा है. पहले यह बीमारी 'काउ बेल्ट' तक सीमित थी, जहां हर चर्चा राजनीति से शुरू होकर राजनीति पर खत्म होती है. इसलिए भी, क्योंकि छोटे शहरों में भागमभाग कम है और समय ज़्यादा. फुर्सत ही फुर्सत. लिहाज़ा, चाय की चुस्की के साथ राजनीति पर बहसबाज़ी सबसे पसंदीदा शगल है. दिन-रात 'पैहे कैसे कमाएं' की जुगत में लगे दिल्ली वाले भी अब इस वायरस की चपेट में आ गए हैं या शायद यह दिल्ली-NCR में जनसांख्यिकीय बदलाव का असर है. विगत कुछ वर्षों में दिल्ली की पंजाबियत के वर्चस्व को पूर्वांचल से चुनौती मिल रही है. 'बल्ले-बल्ले' को 'लगावे लू लिपिस्टिक' और भिखारी ठाकुर के 'विदेशिया' के लिए भी जगह छोड़नी पड़ रही है. चुनौती बेहद कड़ी है. शीला दीक्षित ने दिल्ली को 'बाहरी' से खतरा क्या बताया, खत्म ही हो गईं. ख़ुद भी डूबीं और पार्टी की नैया भी.
बहरहाल, डॉक्टर के दबाव में सेहत के लिए शुरू की सुबह की सैर शरीर पर कितना असर कर पा रही है, यह तो बाद की बात है. राजनीति की 'बकैती' दिमाग और रक्तचाप पर दबाव बढ़ाने लगती है, इसलिए कोशिश करता हूं कि 'वॉक' अकेले ही करूं. टेलीविज़न से लेकर अख़बार और सोशल मीडिया तक राजनीति की चर्चा का स्वरूप घृणित और डरावना हो गया है. अब आप भले ही पलायनवादी कह लीजिए, लेकिन इन बहसों से दूर रहना ही बेहतर समझने लगा हूं.
लेकिन उस दिन फिर उनकी 'टाइमिंग' और मेरा समय 'मैच' हो गया और अगले 20 मिनट का वक्त मेरे लिए बुरा मुकर्रर हो गया. "काम तो इन्होंने किया है, लेकिन इन्हें केंद्र के दबाव में काम करना पड़ रहा है..."
अब इसके सामने किसी तर्क की गुंजाइश बचती है क्या...? कदमों को तेज़ी दी और 'वॉक' को 'ब्रिस्क' कर लिया. इससे दो फायदे हैं. पहला - डॉक्टर कहते हैं टहलने से ज़्यादा लाभकारी है तेज़ी से चलना. दूसरे - इससे आप हांफने लगते हैं, सो, हांफिएगा तो कम बोलिएगा. मेरी तरकीब काम आई.
"नेता थोड़े ही हैं ये लोग... कहां-कहां से उठकर चले आए हैं... छुटभैये टाइप के..." हांफने के बावजूद कह गए.
मतलब मानसिकता है कि टशन नहीं, ठसक नहीं, रुआब नहीं, दबंगई नहीं, सफेदपोशी नहीं तो नेता कैसा...! जब तक लाल बत्ती की एसयूवी पर भक्क सफेद कुर्ते-पायजामे में पान की पीक उड़ाते घूमे नहीं तो नेता काहे का. ब्लैक कैट कमांडो न सही, दो-चार गनर आगे-पीछे न चलें, तो कौन नेता मानेगा. दिन में पांच दफा पोशाक बदलना, हेलीकॉप्टर से उतरना, बड़ी गाड़ियों पर घूमना परेशान नहीं करता, चकाचौंध करता है. हमें धौंस, चमक और चकाचौंध की राजनीति समझ आती है और हम इसके आदी हैं.
अब देखिए न, दिल्ली के नौकरशाह एक पूर्व नौकरशाह का हुक्म बजाने से मना कर दे रहे हैं, वहीं झारखंड में एक बूढ़ा नेता अपनी गाड़ी से उतरकर गुस्से में दौड़ते हुए एक अधेड़ IAS रैंक के अधिकारी पर टूट पड़ता है... दे दनादन... आपके पास भी व्हॉट्सऐप पर वीडियो आया ही होगा. क्या कोई हायतौबा मची...? फर्क इतना था कि अदना होते हुए भी वह खद्दरधारी था, जबकि यहां राज्य का मुखिया होते हुए भी पोशाक नहीं बदली. शर्ट-पैंट से नहीं, खद्दर से रुआब बनता है.
यह तो आपने भी अनुभव किया होगा कि शांत, विनम्र और मृदुभाषी अक्सर 'टेकन फॉर ग्रांटेड' का शिकार हो जाते हैं. वहीं घमंडी और बदज़ुबानों से ज़माना डरता है. सदियों की दासता और गुलामी मानसिकता पर इतनी हावी है कि आज भी अंग्रेज़ को देखकर एक अदब आ जाता है.
पहले ज्योति बसु और बु्द्धदेव भट्टाचार्य और अब माणिक सरकार की सादगी को भी आखिरकार शिकस्त खानी पड़ी. यह सोच हावी हो चली था कि ये ख़ुद भी ग़रीब बने रहेंगे और हमें भी ग़ुरबत में रखना चाहते हैं. वैश्विक भौतिकवादिता की भूख की चपेट में त्रिपुरा भी आ ही गया. मोबाइल नहीं रखने की ज़िद माणिक दा को, ख़ासकर व्हॉट्सऐप पीढ़ी के नौजवानों से कनेक्ट नहीं कर पाई. वाम विचारधारा कंप्यूटर जेनेरेशन के संग सिंक नहीं हो पाई.
वर्षों तक अलगाववादियों से माणिक सरकार की सरकार ने सख़्ती के साथ लोहा लिया. नेशनल लिबरेशन फ्रंट ऑफ त्रिपुरा और ऑल इंडिया त्रिपुरा टाइगर्स फोर्स जैसे अलगाववादी संगठन बांग्लादेश में बेस बनाए हुए थे. सरकार शांति बहाल करने में कामयाब रही. 2015 आते-आते त्रिपुरा से AFSPA, यानी आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पॉवर एक्ट भी खत्म हो गया.
अमन-चैन और शांति के बाद संपन्नता आती है, लेकिन माणिक दा यहीं मात खा गए. 20 साल तक मन पढ़ने वाले माणिक इस बार नब्ज़ नहीं टटोल पाए. बड़े अरमानों और ऊंची ख़्वाहिशों के बीच माणिक दा के अभियान का दम निकल गया.
जीवन अपना स्तर ऊंचा उठाने के लिए कसमसा रहा था. ख़्वाहिशें ज़मीन से उठकर आसमान छूना चाहती थीं. सादगी रंग और मिज़ाज रंगीनी देखना चाहते थे. 'माणिक' नहीं, 'हीरा' चाहिए - सब्ज़बाग़ लुभाता चला गया.
देश में जहां सातवां वेतन आयोग लागू है, वहीं त्रिपुरा में अभी चौथा वेतन आयोग ही चल रहा है. मुख्यमंत्री 2,000 में भले काम चला लेता हो, लेकिन जनता का जीवन नहीं चल पाया. इसलिए कह दिया - बस, अब और नहीं. पूर्वोत्तर भारत ने भी अब 'टशनी राजनीति' को पसंद कर लिया है. अच्छा है या बुरा, इसका अनुभव करने का हक़ नॉर्थ-ईस्ट को भी तो था...
"लेकिन काम तो किया है...!"
"हां, स्कूल में तो सुधार किया है... मोहल्ला क्लीनिक की तारीफ करनी पड़ेगी,
वहां सुविधाएं बहुत अच्छी हैं..."
"सुना है, RTP में भी घूसखोरी कम हुई है..."
"हां, दलाल कम हुए हैं..."
'मॉर्निंग वॉक' के समय 'वॉक' कम, 'टॉक' ज़्यादा होने लगा है. पहले यह बीमारी 'काउ बेल्ट' तक सीमित थी, जहां हर चर्चा राजनीति से शुरू होकर राजनीति पर खत्म होती है. इसलिए भी, क्योंकि छोटे शहरों में भागमभाग कम है और समय ज़्यादा. फुर्सत ही फुर्सत. लिहाज़ा, चाय की चुस्की के साथ राजनीति पर बहसबाज़ी सबसे पसंदीदा शगल है. दिन-रात 'पैहे कैसे कमाएं' की जुगत में लगे दिल्ली वाले भी अब इस वायरस की चपेट में आ गए हैं या शायद यह दिल्ली-NCR में जनसांख्यिकीय बदलाव का असर है. विगत कुछ वर्षों में दिल्ली की पंजाबियत के वर्चस्व को पूर्वांचल से चुनौती मिल रही है. 'बल्ले-बल्ले' को 'लगावे लू लिपिस्टिक' और भिखारी ठाकुर के 'विदेशिया' के लिए भी जगह छोड़नी पड़ रही है. चुनौती बेहद कड़ी है. शीला दीक्षित ने दिल्ली को 'बाहरी' से खतरा क्या बताया, खत्म ही हो गईं. ख़ुद भी डूबीं और पार्टी की नैया भी.
बहरहाल, डॉक्टर के दबाव में सेहत के लिए शुरू की सुबह की सैर शरीर पर कितना असर कर पा रही है, यह तो बाद की बात है. राजनीति की 'बकैती' दिमाग और रक्तचाप पर दबाव बढ़ाने लगती है, इसलिए कोशिश करता हूं कि 'वॉक' अकेले ही करूं. टेलीविज़न से लेकर अख़बार और सोशल मीडिया तक राजनीति की चर्चा का स्वरूप घृणित और डरावना हो गया है. अब आप भले ही पलायनवादी कह लीजिए, लेकिन इन बहसों से दूर रहना ही बेहतर समझने लगा हूं.
लेकिन उस दिन फिर उनकी 'टाइमिंग' और मेरा समय 'मैच' हो गया और अगले 20 मिनट का वक्त मेरे लिए बुरा मुकर्रर हो गया. "काम तो इन्होंने किया है, लेकिन इन्हें केंद्र के दबाव में काम करना पड़ रहा है..."
अब इसके सामने किसी तर्क की गुंजाइश बचती है क्या...? कदमों को तेज़ी दी और 'वॉक' को 'ब्रिस्क' कर लिया. इससे दो फायदे हैं. पहला - डॉक्टर कहते हैं टहलने से ज़्यादा लाभकारी है तेज़ी से चलना. दूसरे - इससे आप हांफने लगते हैं, सो, हांफिएगा तो कम बोलिएगा. मेरी तरकीब काम आई.
"नेता थोड़े ही हैं ये लोग... कहां-कहां से उठकर चले आए हैं... छुटभैये टाइप के..." हांफने के बावजूद कह गए.
मतलब मानसिकता है कि टशन नहीं, ठसक नहीं, रुआब नहीं, दबंगई नहीं, सफेदपोशी नहीं तो नेता कैसा...! जब तक लाल बत्ती की एसयूवी पर भक्क सफेद कुर्ते-पायजामे में पान की पीक उड़ाते घूमे नहीं तो नेता काहे का. ब्लैक कैट कमांडो न सही, दो-चार गनर आगे-पीछे न चलें, तो कौन नेता मानेगा. दिन में पांच दफा पोशाक बदलना, हेलीकॉप्टर से उतरना, बड़ी गाड़ियों पर घूमना परेशान नहीं करता, चकाचौंध करता है. हमें धौंस, चमक और चकाचौंध की राजनीति समझ आती है और हम इसके आदी हैं.
अब देखिए न, दिल्ली के नौकरशाह एक पूर्व नौकरशाह का हुक्म बजाने से मना कर दे रहे हैं, वहीं झारखंड में एक बूढ़ा नेता अपनी गाड़ी से उतरकर गुस्से में दौड़ते हुए एक अधेड़ IAS रैंक के अधिकारी पर टूट पड़ता है... दे दनादन... आपके पास भी व्हॉट्सऐप पर वीडियो आया ही होगा. क्या कोई हायतौबा मची...? फर्क इतना था कि अदना होते हुए भी वह खद्दरधारी था, जबकि यहां राज्य का मुखिया होते हुए भी पोशाक नहीं बदली. शर्ट-पैंट से नहीं, खद्दर से रुआब बनता है.
यह तो आपने भी अनुभव किया होगा कि शांत, विनम्र और मृदुभाषी अक्सर 'टेकन फॉर ग्रांटेड' का शिकार हो जाते हैं. वहीं घमंडी और बदज़ुबानों से ज़माना डरता है. सदियों की दासता और गुलामी मानसिकता पर इतनी हावी है कि आज भी अंग्रेज़ को देखकर एक अदब आ जाता है.
पहले ज्योति बसु और बु्द्धदेव भट्टाचार्य और अब माणिक सरकार की सादगी को भी आखिरकार शिकस्त खानी पड़ी. यह सोच हावी हो चली था कि ये ख़ुद भी ग़रीब बने रहेंगे और हमें भी ग़ुरबत में रखना चाहते हैं. वैश्विक भौतिकवादिता की भूख की चपेट में त्रिपुरा भी आ ही गया. मोबाइल नहीं रखने की ज़िद माणिक दा को, ख़ासकर व्हॉट्सऐप पीढ़ी के नौजवानों से कनेक्ट नहीं कर पाई. वाम विचारधारा कंप्यूटर जेनेरेशन के संग सिंक नहीं हो पाई.
वर्षों तक अलगाववादियों से माणिक सरकार की सरकार ने सख़्ती के साथ लोहा लिया. नेशनल लिबरेशन फ्रंट ऑफ त्रिपुरा और ऑल इंडिया त्रिपुरा टाइगर्स फोर्स जैसे अलगाववादी संगठन बांग्लादेश में बेस बनाए हुए थे. सरकार शांति बहाल करने में कामयाब रही. 2015 आते-आते त्रिपुरा से AFSPA, यानी आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पॉवर एक्ट भी खत्म हो गया.
अमन-चैन और शांति के बाद संपन्नता आती है, लेकिन माणिक दा यहीं मात खा गए. 20 साल तक मन पढ़ने वाले माणिक इस बार नब्ज़ नहीं टटोल पाए. बड़े अरमानों और ऊंची ख़्वाहिशों के बीच माणिक दा के अभियान का दम निकल गया.
जीवन अपना स्तर ऊंचा उठाने के लिए कसमसा रहा था. ख़्वाहिशें ज़मीन से उठकर आसमान छूना चाहती थीं. सादगी रंग और मिज़ाज रंगीनी देखना चाहते थे. 'माणिक' नहीं, 'हीरा' चाहिए - सब्ज़बाग़ लुभाता चला गया.
देश में जहां सातवां वेतन आयोग लागू है, वहीं त्रिपुरा में अभी चौथा वेतन आयोग ही चल रहा है. मुख्यमंत्री 2,000 में भले काम चला लेता हो, लेकिन जनता का जीवन नहीं चल पाया. इसलिए कह दिया - बस, अब और नहीं. पूर्वोत्तर भारत ने भी अब 'टशनी राजनीति' को पसंद कर लिया है. अच्छा है या बुरा, इसका अनुभव करने का हक़ नॉर्थ-ईस्ट को भी तो था...
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